Tuesday, March 31, 2020

व्यवस्थित मन नामक महान उपकरण (Vyavasthita Mana Namaka Mahana upakarana)

लेखक:तारॊडि सुरॆश 
हिन्दी अनुवाद:– पूजा धवन
(के जवाब मे :  lekhana@ayvm.in)


हमारा मन हमारे जीवन पर राज करता है । इसका अर्थ यह नहीं है कि मन हमेशा सही है । सुसंस्कृत या व्यवस्थित मन एक शान्तिपूर्ण और शान्त जीवन के लिए मार्गदर्शन करता है; ना कि दुख कि ओर  । भारत की संस्कृति जो है, उसे इस तरह से रचा गया है कि भोजन, बात, मनोरंजन, व्यवसाय, देने और लेने आदि की प्रथाओं और आदतों को शुद्ध मन सभी गतिविधियों पर नियंत्रण रखने में सक्षम बनाता है ।

दो मित्र धार्मिक यात्रा पर गए थे । वे कई धार्मिक स्थानॊं की यात्रा करने के बाद पवित्र शहर तिरुपति आए । सात पहाड़ियों पर चढ़ने में किया गया थोड़ा सा प्रयास भगवान वेंकटेश्वर के महान और राजसी दिव्य निवास में लाता है । पहाड़ियों की तलहटी पर स्थित तिरुपति शहर भी अत्यन्त सुंदर है। आत्मा को ओज प्रदान करने के अतिरिक्त,  यह इंद्रियों को कई आनंद भी प्रदान करता है । अब एक मित्र मन्दिर जाने की असुविधा नहीं उठाना चाहता था । अन्यथा वह स्वादिष्ट भोजनालयों में अपनी जीह्वा को तृप्त करने और आकर्षक जगह और चलचित्रा को अवशोषित करने के लिए जाना चाहता था ।  तो एक मित्र पहाड़ी की चोटी पर स्थित मंदिर की ओर गया और दूसरा स्थल अवलोकन करने लगा । दोनों की नियत समय पर मृत्यु हो गई । आश्चर्य की बात है कि जो व्यक्ति भगवान की एक झलक पाने के लिए सात पहाड़ियों पर चढ़ गया था, उसे मृत्यु के स्वामी के सेवकों द्वारा नरक में खींच लिया गया था । स्वर्ग के प्रहरी दूसरे को अपने राज्य में ले गए । यह कैसे उचित हो सकता है, एक उचित प्रश्न है । गहराई से विश्लेषण इस रहस्य को समझने में सहायता करेगा । 

जो व्यक्ति शहर का आनंद लेने वाला था वह दुखि था कि उसनॆ कित्नी बडी भूल करी और प्रभु कॆ दर्शन के लिए नहीं जा पाने के कारणवश उसका मन उदास था । उनका मन प्रभु, उनकी भव्यता और दिव्यता के विचारों में डूबा हुआ था । यद्यपि दूसरे व्यक्ति ने पहाड़ियों पर चढ़ने का प्रयास किया था, परन्तु उसका मन उसका दोस्त क्या कर रहा होगा इसमें लीन था । इस पूरे समय में उसे लग रहा था कि उसे भी अपने मित्र के साथ सुख का आनंद लेना चाहिए था । यद्यपि  उन दोनों के शरीर वहीं पर थे जहां वे दोनों चाहते थे परन्तु उनका मन कहीं और था । परिणाम यह हुआ कि एक नरक में गया और दूसरा स्वर्ग में। 

हमारे बुरे और अच्छे (पाप और पुण्य) कर्मों के परिणाम, हमारी बुद्धि या मन पर निर्भर करते हैं । "यह केवल मन ही है जो बंधन या मुक्ति के लिए कारण है" ज्ञानियों का ऐसा मान्ना है । मन को शुद्ध करने के लिए, हमारे ऋषियों (ज्ञानियों) ने हमारे जीवन को शुद्धिकरण के सोलह साधनों (षोडश संस्कारों) में परिवर्तित करने की विधियां स्पष्ट की हैं । उन्होंने हमारी सोच को अमर साहित्य, पवित्र अतीत (इतिहसा) की घटनाओं और अनंत काल (पुराण) की कहानियों, शिक्षा और प्रशिक्षण प्रणालियों से लेकर गुरुकुलॊं के उत्थान के अन्तर्गत ढाला है।  उन्होंने एक सभ्यता और संस्कृति का निर्माण किया है, जो इस सोच को हमारे दैनिक दिनचर्या में, हमारी आजीविका के साधनों में, उन त्योहारों में, जो हम मनाते हैं, जो हम विभूषित करते और पहनते हैं में एकीकृत किया है । जब ऋषि वाल्मीकि ने सरयू नदी के निर्मल प्रवाह की प्रशंसा की तो उन्होंने इसकी तुलना अनंत (सनमनुष्य मनो यथा) में लीन व्यक्ति के शांत मन से की । यह वह वरदान है जो मन के शुद्ध होने पर प्राप्त होता है। "जिस तरह से एक जंगली हाथी को शिक्षित हाथियों द्वारा प्रशिक्षित किया जाता है, वैसे ही ज्ञानियों की संगत के उत्कृष्ट प्रभाव द्वारा हमारा मन भी शुद्ध बन जाता है" महान श्री श्रीरंगा महागुरु ऐसे कहते थे । ज्ञानियॊ के संग से हम एक उन्नत मनःस्थिति को प्राप्त कर लेते हैं जिसके द्वारा हम सृष्टी के मूल में व्यवस्थित परमानन्द को प्राप्त कर लेगें ।

सूचन : इस लेख का कन्नड़ संस्करण AYVM ब्लॉग पर देखा जा सकता है |