लेखक – डा मोहन राघवन
हिन्दी अनुवाद – पूजा धवन
(के जवाब मे : lekhana@ayvm.in)
हमारी संस्कृति के लिये यह एक महत्वपूर्ण पल है, एक निर्वाह का दिन है जिसके लिये हमने सदियों तक प्रतीक्षा की है। शिशु राम लल्ला की अर्चा रूप में भगवान राम अपने जन्मस्थान में पुनः पदन्यास करने वाले हैं। इस दिन जब हमारे लाखों देशवासियों के प्रयास सफल हो रहे हैं, तो यह स्वाभाविक है कि हमारी छाती गर्व से फूल रही है और हमारे हृदय भक्ति से गदगद हो रहे हैं। क्या यह पोषित राम राज्य का पहला कदम हो सकता है? क्या प्रस्तुत समय और आने वाले समय में सनातन आर्य महर्षियों के भारत स्वर्णिम युग का पुनरागमन होगा? क्या यह संभव है? क्या ऐसी कल्पना संवैधानिक रूप से मान्य है? इस महत्वपूर्ण अवसर पर, हर्षोल्लास के साथ साथ इसके महत्व पर भी विचार करना उप्युक्त होगा। 'श्रीराम' शब्दमात्र से हमारे अन्तरङ्ग में विभिन्न भावनाएँ जागृत होति हैं । भक्तों के लिए वह परम है, परिपूर्ण अवतार है। दूसरों के लिए वह सत्य का प्रतीक है - वह वीर, जो प्रसन्न्ता पूर्वक अपने पिता की बात रखने के लिए सिंहासन से दूर जंगलों में चला गया। अनगिनत देशवासियों के लिए वह 'मर्यादा पुरुषोत्तम' है, जो सदाचार का प्रतीक है, जो धर्म को बनाए रखने के लिए नित्य समर्पित है । वह अतुलनीय और असहायशूर योद्धा थे
- जो हजारों को स्वयं ही परास्त करने में सक्षम थे। लोग अपनी रुची और स्वभाव के अनुसार उनके व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं में से एक या अधिक से मोहित हो जाते हैं - उनकी समविभक्त सुंदर अंग, लंबी भुजायें, अपने भाइयों और प्रजा के प्रति प्रगाढ स्नेह, उनका नेतृत्व, प्रतिष्ठा का बोध, उनका गम्भीर व्यक्तित्व या उनके विभिन्न अनगिनत लक्षण।
राम के अनुयायियों और श्रद्धालुओं के साथ, ऐसे भी कई हैं जो मानते हैं कि राम काल्पनिक हैं; जो लोग सोचते हैं कि राम मन्दिर एक बहुत बडी अपव्यय है; कि यह राम राज्य का उन्माद हमारे समाज को रसातल में कर्षित करेगा; ऐसा राम राज्य हमारे संविधान के उल्लंघन में है। इन लोगों का मानना है कि प्रस्तुत समय में राम के शासनकाल की नहीं परन्तु मानवीय मौलयों के शासनकाल की आवश्यकता है। ऐसी स्थिति और विचारधाराओं के बीच मे राम मन्दिर और राम राज्य का निर्माण सम्पूर्ण करना है। इसलिए यह आवश्यक है कि राम के प्रति हमारी श्रद्धा, उत्साह और विश्वास को हमारी परम्पराओं में सौंपी गई बुद्धि और तर्क के साथ सदृढ़ किया जाए। रामजी की वास्तविक समरूपता? जैसा कि सर्वविदित है, राम इक्ष्वाकु के वंश में जन्मित रघु के वंशज दशरथ के पुत्र थे। रामायण द्वारा ऋषि नारद ने स्वयं राम के जीवन और उपलब्धियों को ऋषि वाल्मीकि को पूर्ण रूप से वर्णित किया था। किन्तु यह सब ज्ञात होने के उपरान्त भी, वाल्मीकि जी ने महाकाव्य लिखना प्रारम्भ नहीं किया । वाल्मीकि की रामायण में वर्णित उनका ऐसा पोतारोहण आज के चलन में विचित्र माना जायेगा । उन्होंने कुशा घास को
पूर्वाभिमुख कर अपना आसन बनाया । आचमन करके अपनी सङ्कायों को शुद्ध करते हुए, वह ध्यान मुद्रा में अपने पवित्र आसन पर बैठ योग समाधि में मग्न हो गये। समाधि में उन्होंने राम के वास्तविक रूप, वैभव और गतिविधियों का स्पष्ट अवलोकन किया। रामजी का रूप, स्वरूप का दर्शन योग समाधि में इतना स्पष्ट दिखाई दे रहा था जैसे मानो कि करतलामलक (हथेली में आमला)। हृदय की गुफा में वह सर्वोच्च प्रकाश, जो योगिक अनुभव का सार है, वास्तव में राम के अतिरिक्त और कोई नहीं । राम शब्द का उगम 'रम्' धातु से होता है, जिसका अर्थ है 'आनन्दित करना'; योगी अन्तरंग आनन्द का अनुभव करते हैं और लोग राम के बाहरी रूप से आनन्दित होते हैं। इस प्रकार राम के व्यक्तित्व और गाथा का वर्णन कर पाने के लिए, व्यक्ति का महर्षि वाल्मीकि जैसे उच्च कोटि का तपस्वी और कवि होना अत्यावश्यक है । यही कारण है कि वाल्मीकि रामायण को हमारी परम्पराओं में इतनी उच्च मान्यता प्राप्त है।
रामावतार का रहस्य
यदि राम को वाल्मीकि का योगिक अनुभव माना जाये तो दशरथ के पुत्र राम कौन थे ? क्या वह एक कपोलकल्पित पात्र थे? क्या वह 'काल्पनिक' थे? हमारी परम्पराएं योगिक सत्य और ऐतिहासिक व्यक्तित्व के बीच के इस संबंध को 'अवतार' नाम से वन्दित करती हैं - एक अवतरण। एक अवतार, निहित और अमूर्त की स्पष्ट अभिव्यक्ति है। उदाहरण के लिए, एक क्रोधित व्यञ्जक किसी अव्यक्त क्रोध की अभिव्यक्ति है। एक स्मित मुखाकृति, अन्तरानन्द का अवतार कहा जा सकता है। क्रोध और वासना, लालच और मोह, हिंसा और छल राक्षसी प्रवृत्ति के अवतार हैं। ऐसी मानुष गुणों के अवतरणों से हम भली भाति परिचित हैं | किन्तु मन की असाधारण या योगिक अवस्थाओं, और शक्तियों का अवतार या सांसारिक अभिव्यक्तियाँ अतीव दुर्लभ हैं। राम और कृष्ण अवतार को सर्वोच्च श्रेणी के ऐसे अवतार माने जा सकते हैं। ऐसे अवतारों में स्वाभाविक रूप से आत्म भाव और योगिक अवस्था की अभिव्यक्ति पूर्ण है। अवतार के समकालीन योगियों और तपस्वियों को जब इन अवतारों का दर्शन होता है, वह उन्हें मुग्धबन्ध और विस्मित कर देता है। उन्होंने जो कुछ भी अपने अंदर देखा, उसके हर पहलू को इस बाहरी व्यक्तित्व में प्रकट किया गया है - रूप, रंग, गति, कक्ष्या, कण्ठ, ध्वनि, गुण; समस्त स्वरूप। इस सब पर आधारित राम को आत्मदेव की मूर्ति का रूप माना जाता है। "रामो विग्रहवान धर्मः"। अन्य नश्वर यद्यपि राम और कृष्ण के अवतार रूपी प्रतीमा को नहीं जान पाये, तदापि उन्हें भी सुखद और तीव्र आनन्दमयी भावना का अनुभव हुआ ।
राम और प्रजा पर प्रभाव
यदि हम किसी के क्रोधित मुख को देखें, तो यह स्वाभाविक है कि हम स्वयं क्रोध से भर जायेंगे। एक हंसमुख व्यक्ति अपने समक्ष प्रसन्न्ता भाव को बडाता है। यह प्रतिबिम्ब के एक सामान्य सिद्धांत को इंगित करता है, जिसमें हर भाव के पीछे अन्तर्निहित स्थितियां दर्शक के हृदय मे भी प्रतिबिंबित होते हैं। यदि किसी को महान अवतार अवलोकन करने का सौभाग्य प्राप्त होता है, तो उसके रूप को मन में धारण करें और उनकी गतिविधियों का सटीक वर्णन अन्तर्मन में सुनें। ऐसा करने से हम स्वाभाविक रूप से योगिक अवस्था में पहुँच जायेंगे। राम राज्य में वशिष्ठ और विश्वामित्र जैसे ऋषियों को यह सौभाग्य निज था। राम अवतार में प्रत्येक आत्मगुण आविर्भूत थे। वह वास्तव में अपने भक्तों को प्रसन्न कर देने वाले अवतार थे। जो उसे देखता है, देखता ही रह जाता, वह पुनः पुनः दर्शनिच्छुक बनकर पुनः लब्ध दर्शन से भी अतृप्त रह जाते थे। वाल्मीकि वर्णित, रामजी के शब्द और ध्वनि मीठी और सहज थी। वह पूर्वभाषी थे | अपनी प्रजा की पीड़ा को देखकर उनका हृदय द्रवित हो जाता था। यद्यपि अधिपति, उनका मन संसारिक सुखों के प्रति वैराग्य से भरा था; इतना कि सिंहासन के सुख को छोड वनगमन मे दुख या क्रोध का अवलेश भी न था । परब्रह्मन के अवतरण का निर्णायक गुण यह है कि इसके व्यक्तित्व का प्रत्येक पहलू हमें सीधा योग की आन्तरिक अवस्थाओं की ओर अग्रसर कराता है। योगी और ऋषि ऐसे अवतार की पहचान कर सकते हैं। इस प्रकार वाल्मीकि ने रामायण के महाकाव्य को अपनी कविता में डालने का उद्यम शुरू किया । ऐसी कविता अपने श्रोताओं के मन में सीता और राम के व्यक्तित्व को पूरी तरह से डाल देती है। दिव्य दम्पति के गुणों का ध्यान करना योग की अव्यक्त प्रक्रिया द्वारा आध्यात्मिक आनंद को पुनः प्राप्त करने का एक साधन है। वास्तव में, यदि इस महाकाव्य - 'रामायण का पारायण' किसी राम परायण ज्ञानी द्वारा किया जाता है, तो प्रतिबद्ध और
अवशोषित श्रोताओं पर उसका प्रभाव योग के फल के समान ही होता है। यह उच्चतम योगिक स्थिति की ओर हमें ले जाता है।
रामराज्य और धर्म की रक्षा
जहाँ सौम्य राम, रावण के सम्मुख कालअग्नि के समान भीकर और भीषण रूप में दिखाई पड़ते हैं। जो दूसरों में दया, क्षमा और सन्तोष जैसे सौम्य और सुन्दर आत्म धर्म प्रबोधित करते हैं वही राम उन धार्मिक शक्तियों के विरोधी असुर शक्तियों को नष्ट करने के लिए दृढ़ भी रहते हैं। जो स्वास्थ्य की इच्छा रखता है, उसे कीटाणुओं पर विजय प्राप्त करनी ही पडती है। जो लोग जन कल्याण निहित पवित्रता, तपस्या और योगानुभव परमानन्द
की नींव पर बनाई गई सभ्यता के विरोधी हैं, उनका समूल नाश होना ही चाहिए। ऋषयाश्रम, गुरुकुल जैसे संस्थान को संरक्षित किया जाना चाहिए जो आत्मधर्म, संयम और पुरुषार्थमय जीवन के आधार हैं। इस प्रकार यह आवश्यक था कि ऋषि, उनकी तपस्या, उनके बलिदान और धर्म के उनके सुरक्षात्मक आदेश की रक्षा की जाए। यही राम और कृष्ण जैसे अवतार का लक्ष्य था। युद्ध में बाहरी शत्रु पर विजय प्राप्त करना अपेक्षाकृत आसान है, परन्तु हमारे हृदय में व्याप्त कुरीतियों से जूझना और हमें अत्मधर्म के पथ पर रखना सामान्यों के लिए असंभव ही है। सीता और राम ने अपने आदर्श आचरण और व्यक्तित्व द्वारा अपनी प्रजा में उच्च आदर्शों का आह्वान किया, जो वास्तव में यथार्थ रामराज्य की नींव थी। रामायण में वर्णित है कि राम के शासनकाल में प्रजा लोभ और अतिरेक से मुक्त थी। संतुलन की उनकी भावना और उनके चाव पर नियन्त्रण ने उन्हें संसाधनों का केवल इतना उपयोग करने के लिए प्रेरित किया, जितनी की जरूरत थी। प्रकृति में संतुलन इतना उपयुक्त था कि सर्व ऋतु क्रमिक और समय बध थीं। सबके हृदय सन्तुष्ट थे, चूल्हे प्रचुर्य थे और झोपड़ियों में समृद्धि थी। राज्य में भरमार वहाँ के राजा की अनुकम्पा थी। यहां तक कि सबसे कठिन समय में जब सीता और राम को अनगिनत पीड़ा उठानी पड़ी और उनके अपने निजी जीवन बिखर गए, उन्होंने अपना आचार ऐसा रखा जिससे उनकी प्रजा का धर्म के प्रति विश्वास और समर्पण शिथिल ना हो। प्रजा और समाज के अंतःकरणों में आत्मगुण और आत्म धर्म के बीज बोना, उन्हें सींचना और उनका पालन-पोषण करना रामराज्य के आदर्श हैं। हमारे जैसे आम लोग प्रायः अनियन्त्रित उत्साह, लालसा, असन्तोष और इंद्रिय ग्राम सम्बन्धित दोषों की आसुरी लंका में कैद हैं। राम के व्यक्तित्व को आत्मसात करने के माध्यम से, सीता याने मूर्तिमत शान्ति को पुनः प्राप्त करसकते हैं | हमारे हृदय की गुप्त गुफा में हमें आत्माराम को प्रतिष्ठित कर सकते हैं । योगियों को विदित हृदय की यह गुफा ही अयोध्या
है, जो अभेद्य है - जिसे बाहरी साधनों से नहीं जीता जा सकता है। यह केवल उच्चतम क्रम की तपस्या से प्राप्य है। किन्तु रामायण के अद्भुत उपकरण द्वारा हमें अत्यन्त सरलता से यह सब प्राप्य है। राम के लिए एक मन्दिर जिस प्रकार उपयुक्त परिस्थितियों में चुम्बक अन्य आधार वस्तुओं में चुम्बकत्व को प्रेरित करता है, वैसे ही अवतार चेतन और निर्जीव वस्तुओं में सदगुण उत्पन्न करने में सक्षम होते हैं। ऐसे महापुरुष किसी भी भौगोलिक क्षेत्र को 'पवित्र' कर 'तीर्थ' क्षेत्र में परिवर्तित सकते हैं - यह श्रीरंग महागुरु द्वारा प्रतिपादित एक अनुभवात्मक और प्रायोगिक सत्य था। इस प्रकार के स्थान तपस्या, पूजा और अन्य आध्यात्मिक साधनों के लिए एक आदर्श बन जाते हैं। श्रीराम ने हमारे देश भर में यात्रा करते हुए अन्य स्थानों को जैसे - चित्रकूट, प्रयाग, दंडकारण्य, पञ्चवटी, हम्पी, रामेश्वरम, धनुषकोटि, लंका और उन सभी में सर्वाधिक अयोध्या, तीर्थक्षेत्र के रूप में प्रतिष्ठित किया। यदि अयोध्या को आध्यात्मिक साधना के मन्दिर के निर्माण के लिए उपयोग किया जाता है, तो यह अनगिनत पुरुष और महिलाओं के लिए हर्ष, शान्ति और आन्तरिक आनंद का आश्रय होगा। अस्पताल, स्कूल और ऐसे अन्य संस्थान बहुत महत्वपूर्ण हैं, इसमें कोई सन्देह नहीं है। परन्तु यह सब सामान्य प्रभाव युक्त अन्य किसी स्थान में भी निर्मित हो सकते हैं। यदि आध्यात्मिक खोज के लिए पवित्र स्थानों का उपयोग किया जाता है, तो इस प्रक्रिया से हमें लाभ होगा, भगवान राम को नहीं। इस ऐतिहासिक अवसर पर, हम अत्यन्त कृतज्ञता और श्रद्धा भाव से श्रीरङ्ग महागुरु की तपस्या प्रेरित योगदान को सम्मानपूर्वक याद करते हैं जिस के द्वारा उन्होंने हमे राम, रामायण और रामराज्य का सार प्रस्तुत किया । यह केवल उस महानता के कारण है कि इस ऐतिहासिक
अवसर पर हम सभी हाथ जोड प्रार्थना और आशा करते हैं कि अयोध्या में राम का निवास हम सभी को हमारे अन्तर्मन की अयोध्या के आनंद की चरम अवस्था तक ले जाए। यह हमारे हृदय, घर-द्वार , समाज, देश और सम्पूर्ण जगत में राम राज्य की स्थापना की दिशा में पहला कदम हो सकता है - एक ऐसा राज्य जहाँ राम और सीता का आत्म धर्म पूर्णरूप से पल्लवित होता है।