Saturday, July 6, 2019

वाग्वैखरी (बोलनेका वैभव) (vaagvaikharee (bolaneka vaibhav))


लेखक : डा. एम.जी.प्रसाद
हिन्दी अनुवाद : श्रीमती  पूजा धवन



परिचय

बोलने की क्षमता जन्म केबाद प्रारंभिक अवस्था से आरंभ हो जाती है | बचपन से ही बोलने की चेष्टा करना प्रकृति की देन है | यद्यपि कुछ प्रकरणों में बोलने की क्षमता में देरी हो जाती है,तथापि, आम रूप से यहस्वयं ठीक हो जाती है । परन्तु कुछ असामान्य प्रकरणों में चिकित्सा ध्यान और वैदिकीय हस्तक्षेप की आवश्यकता पड़ती है । ऐसे प्रकरणों के अतिरिक्त प्राय: (सामान्य) एक बच्चा आरम्भिक प्रलाप और बाल भाषा से सबका; अपने माता पिता परिवार परिजनों का मन जीत लेता है । यही बच्चा जब बडा हो रहा है,तब उसको बोलने की एक विशेष शक्ति और कौशल की आवश्यकता होती है ।यह कला और विज्ञान द्वारापूरक एक महत्वपूर्ण पहचानबन जाती है । ‘स्पीक /स्पीच’ शब्द संस्कृत भाषा मेंवाक के रूप में जाना जाताहै। हम प्राय: (सामान्य) एकअच्छी तरह से व्यक्त प्रवक्ता(orator) की सराहना करतेहैं और प्राय: बातचीत केसमय भी हम एक अच्छेप्रवक्ता के द्वारा मंत्रमुग्ध होजाते हैं। इसे संस्कृत में वाग-वैखरी कह्ते हैं। तब एकजिज्ञासा होती है कि इस उपरोक्त वाक् (बोलने) का मूल क्या है और इसके स्वरके पीछे का रहस्य क्या है ,इसके पीछे कौनसी शक्ति है । हमारे पूजनीय ऋषियों नेइस वाक् के मूल के रहस्योंको वेदों में प्रकट किया हैऔर भाषण देने की प्रक्रियामें चार चरणों की पहचानकी है।


वाणी के चार चरण

यद्यपि बोलना सरल औरसामान्य प्रतीत होता है,परन्तु भाषण की अभिव्यक्तिमें जटिल चरण होते हैं। यहहमारे पूजनीय ऋषियों द्वाराखोजा गया है और वेदों मेंवर्णित है। ऋग्वेद के एकमंत्र से पता चलता है किवाणी के चार चरण होते हैं।पहले तीन चरण शरीर कीगुहा के भीतर होते हैं। चौथाचरण मुख के माध्यम द्वाराध्वनिरूप से अभिव्यक्त होती है। इन चरणों को परा,पश्यंती, मध्यमा और वैखरीके रूप में माना जाता है।


वाणी की उत्पत्ति

वाणी या वाक की मूल स्थिति परा के रूप में होती है। योग दृष्टि से यह सत्य पता होता है कि हमारे शरीरमें जो शक्तियाँ उत्तेजित होतेहैं उन सब की मूलस्थान मूलाधार चक्र है । यह गुदा और यौन अंगों के  बीच केत्रिकोण प्रदेश मे स्थित है।एक व्यक्ति को बोलने की इच्छा जब होती है, तब वह इच्छाशक्ति, मन द्वारा मूलाधार में परा अवस्था में स्थित वाक शक्ति के रूप में ऊर्ध्वमुख संचार कर नाभिस्थान में संचलन करती है । नाभिस्थान में इस शक्ति का नाम पश्यन्ति है । ऐसे ही और ऊपर बहकर वाक शक्ति हृदयस्थान पे आती है,उस समय उसका नाम मध्यमा है । अन्त में यह शक्ति और ऊर्ध्वगति प्राप्त कर गर्दन स्थान पहुंच कर जिह्वा, दान्त, नाक, चिबुक(जबड़े) तथा अधर (होंठ)के सहाय से मुख द्वारावैखरी नाम से अभिव्यक्तहोती है ।


वाणी का महत्व

एक व्यक्ति के मन में उत्पन्न होने वाली भावनाओं को भाषा द्वारा प्रकट करना हो तो ऊपर्युक्त समस्त क्रियाओं की अनिवार्यता है । ऐसे ही उस व्यक्ति अपने में रहे ज्ञान,वाग्दृष्टि तथा शब्दभन्डारों को सम्यक (अच्छे से)उपयोग कर अपनी भावनाओं को अभिव्यक्त करना है । इसलिए काया,वाचा, मनसा जो शुद्धता है उसको त्रिकरण शुद्धि ऐसे कहा जाती है ।   अतः“मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं माहात्मानाम् ऐसे सुभाषित कहता है अर्थात माहात्माओं के विचार-प्रक्रिया, कर्म, प्रवचन में सामंजस्य होता है । इसलिए वाणी का इतना महत्व है । अतः वाग्शक्ति हमारे सनातन धर्म में वाग देवी तथा सरस्वती देवी के नाम से व्यवहृत है (ज्ञान की देवी,जो पूजनीय हैं) । यदी एक व्यक्ति की वाग वैखरी अच्छी है ऐसे कहना हो तो ऊपर्युक्त समस्त अंशों को अपने मन में लक्षित कर उद्घोषित करना चाहिये।


Note: The Kannada version of this article can be viewed at AYVM blogs