Sunday, March 31, 2019

दीपक - परञ्ज्योति की प्रतिनिधि (deepak - paranjyoti kee pratinidhi)

मूल लेखन :  तरोड़ी सुरेश 
हिन्दी  अनुवाद  : पूजा धवन


यह विचार सर्वविदित है कि अन्धकार का विनाश दीपक के प्रज्जवलन से होता है ।

उल्लुओं इत्यादियों के अतिरिक्त समस्त जीवों को प्रकाश प्रिय है । समस्त विश्व में कहीं और भारत में जो दीपक को महत्त्व दिया है ऐसा महत्त्व नहीं दिखाई देता है । भारत शब्द का अर्थ ही - ’भा’ माने प्रकाश और इसमें जो ’रत’ है वही भारत है ।

प्रतिकर्म भारत में दीप प्रज्जवलन से ही प्रारम्भ होता है । और बिना दीपक समस्त कर्म अशुभ माने जाते हैं । हम जो प्रज्जवलन करते हैं वह दीपक परमात्मा की प्रतिनिधि है क्योंकि परमात्मा ही समस्त ज्योतियों की मूल ज्योति है ।

"सर्वेषां ज्योतिषां ज्योतिः"तमेव भान्तमनुभाति सर्वं तस्य भासा सर्वमिदं विभाति

उसके ज्वलन से ही समस्त भासित होता है । उसकी जो ज्योति है उसी से समस्त वस्तुओं का विभान्त होता है । और उस परमात्मा को ’ज्योतिरिव अधूमकः’ कहते हैं - इसका अर्थ है ’बिना धुआं प्रज्जवलन होने वाली ज्योति’ । ’दीपवद्वेदसारम्’ - ’ह्रदय कमल के बीच या मध्यस्थल में निरन्तर जाज्वल्यमान वेदसार आत्मज्योति है’ - ऐसा समस्त वेदादि  शास्त्रों में वर्णित है । ऐसी आत्मज्योति अन्दर की ज्योति यदि अन्तर्निधि है तब बाहर जो दीपक प्रज्जवलित है वह इसी की प्रतिनिधि है । प्रतिनिधि का सामर्थ्य मूल निधि की ओर ले जाने में है । अर्थात प्रतिनिधि में निधि का लक्षण और धर्म अधिक प्रमाण में अन्तर्गत होना है ।

जैसे परमात्मा नामक अन्तर्ज्योति अज्ञान नामक अन्धकार को दूर करता है वैसे ही बाहर का दीपक भी बाहर के अन्धकार को दूर करता है ।

हमारे राष्ट्रकवि कालीदास शिवजी की तपस्या का वर्णन ऐसे करते हैं - ’जैसे बिना वायु की तीव्रता से दीपक निश्चल होता है वैसा ही उनका मन था’ । ऐसे ही मन के संयम से परमात्मा का दर्शन साध्य है । यही विचार योगशास्त्र में भी बारंबार उद्धघोषित है ।

 इस दीपक की और एक विशेषता यह है कि - जब एक दीपक से और एक दीपक को उज्जवलन करते हैं तो भी मूल ज्योति के मूल स्वरूप में कोई रूपान्तर नहीं होता है । यह भगव्द्धर्म का स्थिरता की प्रतिनिधि है |परमसुख का मूल स्रोत ही परमात्मा है वैसे ही दीपक भी मंगलकर है - यहां मंगल का अर्थ ही सुखदायक है अर्थात जो सुख देता है वही मंगल है । यह वचन ज्ञानियों के अनुभव स्रोत से निकला हुआ है । ऐसे ज्ञानियों के मार्गदर्शन में इस दीपक को यदी साधना का साधन बनाएंगे तो परमात्मानुभव का सुख स्वयं सिद्ध हो जाएगा । जैसे परमात्मा अज्ञान को दूर करके, जनम - मरण चक्र से जीवियों को पार करता है, उसी प्रकार दीपक भी ’तमसो मा ज्योतिर्गमय’ तपस्या का साधन बनकर  आत्मज्यॊती की ऒर ले जाते हुए जनन-मरण  चक्र से मुक्त कर्ता है । इसीलिए इस्का प्रशंसा किया गया है  कि ’मृत्युविनाशिनो दीपः’ - अर्थात केवल बाहर का नहीं ’मृत्यु को भी विनाश करने वाला’ दीपक बन जाता है । 



जैसे भुगोल के नक्षके द्वारा हम इस धरती को अच्छे से समझ लेते हैं, वैसे बाहर का दीपक भी  जीवन का एक नक्षा है । इस दीपक में त्रिवर्ति है - अर्थात तीन बत्तियां हैं । यह त्रिवर्ति त्रिगुणात्मक (सत्व् - रजस - तम्) प्रकृति का प्रतिबिम्ब है । इसमें उपयुक्त तेल और घी को स्नेह भी कहते हैं । ’स्नेह’ का अर्थ ’चिपकना’ है - यहां स्नेह अर्थात घी और तेल भक्ति का प्रतीक है ।  इस दीप को धारण करने वाला दीपस्तम्भ हमारा ’मेरुदण्ड’ अर्थात् ’पीठ की प्रधान हड्डि’ जिसमें ही समस्त अध्यात्म सार है उसका प्रतीक है। योगशास्त्र भी इस मेरुदण्ड में प्रक्षिप्त अध्यात्म मार्ग और उसके अग्रभाग में स्थित सहस्रार चक्र में जाज्वल्यमान् कोटि सूर्य तेज प्रकाश परञ्ज्योति को भी मुक्तकण्ठ से वर्णन करता है । इसीलिये यह दीपक केवल परमात्मा की प्रतिनिधि नहीं है परन्तु हमारे जीवन के परमोदेश्य को समग्र रूप से प्रतिबिम्भित करता है । ऐसा दीपस्तम्भ हमारे ऋषि-मुनियों द्वारा जीवियों को अज्ञान से निवृत्कर ज्ञान मार्ग में प्रवृत करने का अत्यद्भुत परियोजना है ।

पूजा में उपयुक्त विविध विन्यास और संख्या सहित मंगल आरती का विधान भी हमारे अन्दर स्थित योग जीवन के तत्त्वों को एवं चक्रों, पद्मो को, तथा विद्याओं को स्मरण दिलाने वाली विधि है ।

यह समस्त रहस्यों को, महर्षियों के हृदय को समझने वाले गुरुजन द्वारा ही समझना चाहिये । जो इस दीपक के रहस्य को भेदकर उसके तत्त्व को हमारे हृदय में विदित कराये ऐसे परञ्ज्योति की प्रतिनिधि गुरु परञ्ज्योति को और उनकी प्रतिनिधि दीपक को एवं ज्योतिर्विधान रचिता महर्षियों को भी भूयो भूयो वन्दन है ॥

Note: The Kannada version of this article can be viewed at AYVM blogs