मूल लेखन: Dr. के। एस कन्नन
हिन्दी अनुवाद: पूजा धवन
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जीवन एक यात्रा है - ऐसे रूपक को अनेक लोगों ने निरूपण किया है, है ना? हम कहाँ से आए यह हमें पता नहीं है, कहाँ जा रहे हैं यह भी पता नहीं है। इतना ही पता है कि मैं यहाँ हूँ प्रस्तुत समय में| “मैं कौन हूँ” - इस प्रश्न का भी उत्तर हम नहीं जानते हैं । एक प्रसिद्ध श्लोक यह कहता है -
तुम कौन हो? मैं कौन हूँ ? आये कहाँ से ? कौन है मेरी माता ? पिता कौन है ? - इन सभी प्रश्नों का हमें गहनरूप से चिन्तन करने के लिए कहता है।
"कस्त्वं कोऽहं कुत आयातः?
का में जननी को मे तातः?"
भगवद्गीता में भी कहा गया है कि “प्राणियों का जो आदी है, वह अव्यक्त है; प्राणियों का जो मध्य है वह व्यक्त है, प्राणियों का जो निधन या अन्त है, वह भी अव्यक्त है ।”
"अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्त-मध्यानि भारत । अव्यक्त निधनान्येव..."
यात्रा करने के लिए हम पैदल जा सकते हैं; गाँव में हो तो बैल गाड़ी या नगरों में हो तो, घोड़े पर या घोड़ागाड़ी से जा सकते हैं। उन दिनों में जो सामान्य प्रयाणसाधन था, उसी का उदाहरण देना उचित ही तो है - इसी लिए हमें उपनिषद में रथ का ही उदाहरण दिया गया मिलता है -
यह कौन सा रथ है? और रथ में बैठकर निर्दिष्टलक्ष्य की ओर यात्रा कर रहा व्यक्ति अर्थात उस रथ का यजमान - वह कौन है? अर्थात रथि कौन है? रथि का जो सारथि है - वह कौन है? और वह सारथि ही है ना जो रथ की दिशा का निश्चय करता है ? उसी के हाथ में लगाम है । वह लगाम की पकड-खींच-ढील से रथ चलाता है ना? वह लगाम क्या है? वह लगाम के द्वारा घोड़े या घोड़ों पर नियन्त्रण रखता है ना? तो वह घोड़े हैं कौन?
यह सब हैं तो भी प्रयाण का अन्त या उसका चरमस्थान क्या है? अर्थात लक्ष्य क्या है? यह समस्त प्रश्न हमारे सामने आकर खड़े हो जाते हैं ।
इन सभी प्रश्नों का हमारे उपनिषद में अत्यन्त संक्षिप्त रूप में उत्तर दिया गया है । कठोपनिषद् कहता है - "मैं (अथवा आत्मा) ही रथी हूँ; शरीर ही रथ है, बुद्धि ही है सारथि, मन ही लगाम, इन्द्रिय ही घोड़े हैं ।"
"जिस में विज्ञान नहीं है, जिस में मन युक्त नहीं है, इन्द्रिय उसके वश में नहीं आएंगे - जैसे हीन घोडों के साथ सारथी"
"जिस में विज्ञान है, जिसका मन युक्त है, उसके वश में होंगे उसके इन्द्रिय - उच्चकोटि के अश्व के साथ सारथी जैसे"
विज्ञान नामक क्या है? उपनिषद में जो “विज्ञान” शब्द कहा गया है उसका अर्थ है - विशेष ज्ञान । ऐसे ही, मन का युक्त होने का अर्थ क्या है?
मन में योग है यदि, वह ही “युक्त” मन है । कौन सा योग?
"योग" का अर्थ "मिलना", "मिलन" है। स्वयं जो करना चाहता हैं, यदि उसमें मन पूरा मिल गया, उसी में एक हो गया, वह ही युक्त मन है । यदि “मन युक्त नहीं” है तो उस का अर्थ यह है कि वह पूर्ण रूप से एकभूत नहीं हुआ है ।
यदि विशेष ज्ञान हो और युक्त मन भी हो तो सारथी को अच्छे घोड़े मिले हैं । नहीं तो, घोड़े हीनकोटि के हैं ।
यह विज्ञान यदि ना हो तो इसका परिणाम क्या होगा ? यह हो तो, क्या होगा ? ऐसे प्रश्न मन में आते हैं ना ? प्रथमता जो ज्ञान है, सही होना चाहिये । यदि ज्ञान सही नहीं है तो मन युक्त नहीं होगा। यदि मन युक्त नहीं है तो घोड़े के बारे में क्या बोलना है ? वह सदश्व (अच्छे घोड़े) न हो कर दुष्टाश्व ही होंगे ।
घोड़े कैसे भी हों, उससे क्या? ऐसा पूछ सकते हैं ना ? घोड़े अच्छे हैं तो, हम अपने लक्ष्य तक पहुँच सकते हैं। यदि दुष्ट हैं तो क्या हम अपने लक्ष्य तक जा पाएंगे?
ऐसा हो तो, जीवन नामक यात्रा का लक्ष्य है कौन सा?
उपनिषद् कहते हैं -
“तद् विष्णोः परमं पदम्”
“जो विष्णु का परम स्थान हैं”।
वह लक्ष्य क्यों होना चाहिये ?
इसका उत्तर भी वहीं है - क्योंकि वह स्थान है जहाँ पुनर्जन्म नहीं है ।
घोड़े
अच्छे हों अर्थात हमारे इन्द्रिय सत्-प्रवृत्ति के हो तब हम परम पद की ओर
पहुंच सकते हैं । दुष्ट घोड़े हों तो क्या परिणाम हो सकता है ?इसका परिणाम ही संसार है ।
संसार क्या है? संसार का अर्थ है, घूमना या संसरण करना । संसरण माने घूम घूम के आना, घूमते ही रेहना । हम पूछ सकते हैं कि इसमें हानी ही क्या है?
दिल्ली में एक कन्नौट सर्कस (Connaught place) नामक
स्थान है जो कि वृत्ताकार (गोल आकार) है । यह विशाल वृत्त है । उस रस्ते
पर यदि हम चलते हैं तो चलते ही रहते हैं - हमें अभास हो सकता हैं कि प्रगति
हो रही है| हम तो स्वयं को प्रगतिपर ही समझ लेतें है । परन्तु हो क्या रहा है? हम पुनःपुनः भ्रमण कर रहें हैं, जहाँ से चले वहीं आ रहे हैं । विशेष ज्ञान यदि नहीं है तो चक्रवद्—भ्रमण का अभास ही नहीं होगा ।
हमें
ऐसा भी प्रतीत होगा कि हम कितनी तीव्र गति से आगे बड़े जा रहे हैं और अन्य
सबको पीछे छोड़ कर बड़ रहें हैं । ऐसा करने से क्या हम अपने गन्तव्य तक
पहुँचेंगे? यदि यह प्रश्न ही नहीं उठता है मन में तो क्या लाभ है?
हम जिस में हैं वह ही संसार स्थिति है, लक्ष्य ही परमपद है । यही पथ का अन्त है, जीवन का चरम लक्ष्य है ।
हम कौन हैं? हमारी प्रस्तुत स्थिति क्या है ? हमारा क्या लक्ष्य है ? उपनिषद् का दिया हुआ यह रूपक हमें यह बतलाता है – रथ - रथि, सारथी - लगाम , घोड़े - मार्ग, चरम स्थान - भ्रमण इत्यादि को उत्तम रूप से समझाता है।
"उदाहरण" शब्द
का अर्थ ऊपर (उत्) उठाना (आहरण) है । अज्ञान के गड्ढे से ज्ञान के उन्नत
स्थान पर ले जाने वाला ही उदाहरण है । मन को भाने वाले उदाहरण-रूपक से हमें
उन्नत स्थिति तक ले चलकर, हमें सत्य दर्शाते हैं हमारे उपनिषद ।