लेखक – डा. मोहन राघवन
हिन्दी अनुवाद – श्रीमती एम.हेच. इन्दिरा
‘काम’ कहने पर ही मुस्कुराते हुए बात बदलनेवाले कुछ लोग होते हैं | कतिपय मानते हैं कि ’ शालााओं में विद्यार्थियो को जानकारी देनेवाले विषय मे से एक यह भी है’ | काम को नीचभाव से देखनेवाले और कुछ लोग होते हैं | अधिकतर लोग इसे सिनेमा के ‘रोमान्स’ का पर्याय समझते है|
‘काम’ से ही समाजका बचाव या नाश दोनों साध्य है|
काम सृश्टिसहज एक वेग है | इस वेग के न होने से मनुकुल के इस भूतल पर रहना ही सवाल बनकर रह जाता | जन्म से ही यह वेग हम में गुप्त रूप से छिपकर रहके, तारुण्य में स्त्री-पुरुषों के परस्पर आकर्षण के रूप मे इस की अभिव्यक्ति चिरपरिचित ही है | यह आकर्षण यदि समाज के नियमों और जीवन मौल्यौ के अनुसार हो तो यह उचित कहलाता है | यदि विपरीत हो तो विपत्ति बन पडती है | यह सभी देशों के - सभी जनाङ्ग् -पशु -पक्षियों के समाज का सामान्य नियम है | लेकिन हर समाज मे औचित्य या निषिद्ध कृत्यों की परिभाषा मात्र अलग अलग ही होती है |
प्राचीन भारत के महर्षी काम की शक्ती और सच्चे स्वरुप से भलीभांति परिचित थे | काम का मूल रूप है ‘इन्द्रियों की इच्छाओ को तृप्त करने का तीव्र चापल्य ‘| परिस्थिति के अनुसार चपलता बहु रूपों को धरता है | उन्हे यह भी ज्ञात था कि अनियन्त्रित चपलता सारे रेखाओं को लाङ्घ् कर भागने वाली अश्व कि भांति है | इसी लिए घोडे को लगाम देने की व्यवस्था को भी साथ ही साथ जोडे | वह कैसे ? ‘कार ‘वेग से चलने के लिए ‘अक्सलरेटर ‘ जैसे रहता है वैसे ही वेग को रोकने के लिए ‘ब्रेक ‘ भी रहता है | ‘ब्रेक ‘ के बिना ‘आक्सीडेंट ‘ निश्चित है | जीवन की गाडी में,काम के वेग की नियन्त्रण के लिए ‘ब्रेक ‘ को जोडकर उसके उपयोग की शिक्षा भी देते थे | वह ‘ब्रेक ‘ ही ‘इन्द्रियजय ‘ कहलाता है | अत्यन्त प्रिय खाद्य यदि आँखों के सामने हो पर सेहत के लिये उचित न हो तो चाहते हुए भी उसे नकारने की दृढता है वह 'इन्द्रियजय' | मनोहर पर अनुचित दृश्यों के आँखों के सामने रहने पर भी दृष्टि हटाने की धृति है वह | ऐसे इन्द्रिय जय के बहुत उदाहरण है | मगर यदि हमेशा ही सब कुछ नकारते ही रहें तो यह बात ऐसे हो गयी जैसे ‘गाडी पर ब्रेक लगाना आता है; पर गाडी चला नहीं सकते’| भीड भरी वीथियों मे धीरे चलाना भी जानो और हाईवे पर गाडी 120 कि.मी. की तेजी से चलाओ तभी तो 'वाह -वाह' होगी | ठीक उसी प्रकार ही इन्द्रियों के चाहते हुए भी अनुचित को मना करने का सामर्थ्य, और अनुमति हो तो भोग करने कि कुशलता रहनी चाहिये | एसे रहने पर ही जीवन में एक ‘बालेन्स ‘ रहता है | इसी अवस्था को हमारे ऋषियों ने ‘धर्म‘ शब्द से संबोधित किया |
अर्थ का अर्जन और काम के सेवन के लिए धर्म का ‘लैसेन्स ‘चाहिए :-
भारतीय जीवनव्यवस्था में कामों का भोग और अर्थ का सम्पादन दोनों के लिए अनुमति या लैसेन्स देने के पहले दीर्घ समय तक धर्म की शिक्षा देते थे | वही ब्रम्हचर्य - गुरुकुलवास कहलाता है| वहाँ आज की तरह केवल पुस्तकों के पाठ ही नहीं बल्कि तपस्या से मस्तक को प्रकाशित करने का पाठ भी था | धर्म को आत्मसात करने का अभ्यास था | यह शिक्षा को जो पूर्ण करेगा वही ‘स्नातक‘ पद प्राप्त करने योग्य रहता था | ऐसे ब्रह्मचर्य और तपस्या से पूत जो धर्मिष्ठ हैं वे कामों के भोग से मर्यादा का उललंघन नहीं करते | ऐसे कर्मों मे उनकी रुचि बनती ही नहि | इसी को श्रीमद् भगवद्गीता में श्री कृष्ण ने कहा है कि ‘’धर्माविरुद्धो भूतेषु कामोsस्मि भरतर्षभ’’| श्री कृष्ण का कहना है कि धर्म के अनुसार होने पर मैं ही स्वतः काम हूँ | इस तरह धर्मार्जन के बाद यदि अर्थ -कामों का भोग करें तो ऐसा व्यक्ति गृहस्थ -जीवन में उदारभाव से लोक -कल्याण के लिए अर्थ और कामों का सेवन करता है | न कि अपने स्वार्थ या इन्द्रियों की चपलता के लिए | ऐसा धर्मात्मा समय के बीतते तारुण्य के उपरान्त वृद्दावस्था के आने पर विचलित न होते हुए वैराग्य से भोग को त्यागकर तपस्या का आश्रय लेता है | पुराने कपडों की भाँति निरातंक होकर शरीर का त्याग करता है | इसका वर्णन करते हुए महाकवि कालिदास कहते है
‘’शैशवेभ्यस्थ विद्यानां यौव्वने विषयैषिणाम् वार्धक्ये मुनिवृत्तीनां योगेनान्ते तनुत्यजां "
यह विषय आज भी प्रसक्त है क्या ?
हमारे मन मे यः सवाल उठ सक्ता है कि 'पुराने जमाने की बात आज हम क्यों दोहरा रहे हैं' ? पर काम के वेग से भरे इस शरीर की गाड़ी को हम आज भी चलाते आ रहे है | सुखदायक और सुभद्र जीवन की गति को चाहनेवालों के लिये यह विषय आज भी प्रसक्त है | चाहे हमारे सडकों मे हो या समाज मे; आज भी ‘अशिक्षित चालक‘ ही अपघात का कारण बने घूम रहें हैं | यह बात भूत और वर्तमान काल दोनों मे सच ही कहलायेगा | ‘धर्म ‘ का लैसेन्स रहे तो काम पूज्य है | नहीं तो अपघात का आह्वान मानकर सर्वथा त्याज्य ही है |
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