लेखक: श्री
के.एस.राजगोपाल
हिन्दी अनुवाद:
श्रीमती पूजा
धवन
महाविष्णु के निवास स्थान वैकुंठ के द्वार्पाल जय और विजय हैं। एक बार, महान सनक और उनके साथी संत जन महाविष्णु से मिलने आए। अहंकार के कारण, इन ऋषियों की महानता से अवगत होते हुऎ भी, द्वार्पालो ने उन्हें वैकुंठ में प्रवेश करने से रोक दिया । ऋषियों ने क्रोध में आकर जय और विजय को शाप दिया: “तुम इस पवित्र स्थान पर रहने के लिए अयोग्य हो ; राक्षसों के रूप में पृथ्वी पर जन्म लो ”। तब महाविष्णु वहाँ स्वयं प्रकट हुए और जय और विजय को दो विकल्प दिए - याँ तो तीन जन्मों के लिए विष्णु के जन्म जाट शत्रु के रूप में जन्म लेना, याँ सात जन्मों के लिए उनके मित्र के रूप में - उन्होंने उत्सुकता से पहला विकल्प चुना ताकि वे शीघ्र ही वैकुंठ लौट सकें । विष्णु ने अब ऋषियों को संबोधित किया क्योंकि वह उन्हें ज्ञानोदय करना चाहते थे। हस्ते हुए, उन्होंने टिप्पणी की: "यह जय और विजय का अत्यधिक अनुप्युक्ता है, कि आपके समान ऋषियों को द्वार पर रोक दिया, जो कि जितेन्द्रिय के रूप में जाने जाते हैं, (इन्द्रियों के विजेता) और क्रोध पर नियंत्रण के लिए प्रतिष्ठित । मैं व्यक्तिगत रूप से उनकी गलती के लिए क्षमा माँगता हूँ!” तुरन्त ही ऋषियों ने विष्णु के सहायकों के साथ अपने क्रोध पर नियन्त्रन न रखने की अपनी मूर्खता को समझा । यह भारतीय पौराणिक कथाओं के छात्रों के लिए एक प्रसिद्ध कहानी है।
कई लोग यह निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि जय और विजय का वैकुंठ लौटने का आग्रह समझ में आता है क्योंकि वे अपने प्रभु महाविष्णु से अलग होने में असमर्थ थे।
श्रीरंगा महागुरु ने इस कथा को सुंदर विधान से समझाया था । जब जय-विजय ने दो विकल्पों का सामना किया - शत्रु या मित्र बनने के लिए - और पूर्व को चुना, तो इसका कारण यह था कि शाप पहले से ही फल देने लगा था, इस प्रकार इस विकल्प के प्रति उनकी बुद्धि चली । वे विष्णु के सहयोगी होने के लिए चुन सकते थे, चाहे सात जन्मों के लिए हों या सौ के लिए! वैकुंठ के निवासियों के रूप में, उन्हें अपने मन को हमेशा प्रभु पर रखना चाहिए था । भले ही वे शाप के कारण पृथ्वी पर जन्म लेते, यदि उनका मन विष्णु के प्रति अगाध रूप से समर्पित होता, न तो जन्मों की संख्या और न ही उनके रेहने का स्थान दोनो ही उपेक्षित है । वे इस सरल सिद्धांत को ही समझ नहीं पाए! "चाहे स्वर्ग में हो या नरक में, सुख में या दुःख में, मैं हमेशा तुम्हें याद रख सकता हूँ" - इस प्रकार प्रार्थना करना भारतीय संस्कृति की प्रमुखता है।
जय और विजय का प्रसंग समयग रूप से यह दर्शाता है कि कैसे एक महान भक्त भी, अगर प्रसिद्धि या स्थान के लिए एक लालसा विकसित करता है, या इस प्रकार के अन्य स्वार्थों से युक्त होता है, तो जीवन में अपने अंतिम उद्देश्य को भूल सकता है। अगर भगवान विष्णु के सेवादारों के साथ भी ऐसा हो सकता है, तो हममें से बाकी लोगों की क्या बात है? यही कारण है कि बुजुर्गों ने चेतावनी दी "प्रत्यहं प्रत्ययवेक्षेत नरश्चरितमात्मनः। किं नं मे पशुभिस्तुल्यं किं नु सत्पुरुषैरिति” । (एक मनुष्य को प्रति दिन आत्मनिरीक्षण करना चाहिए कि: क्या मैं जानवर की तरह व्यवहार कर रहा हूं या एक महान व्यक्ति की तरह?) पशु केवल स्वाभाविक प्रवृत्ति पर कार्य कर सकते हैं। एक पशु ही है जो जीवन के अन्त तक अपनी मूल प्रवृत्ति के अनुसार जीवन व्यतीत करता है परन्तु एक मनुष्य ही है जो अपने विवेक से जीवन के परम लक्ष्य अथवा मोक्ष का जीवन चलाकर उसको सार्थक कर सकता है । इसलिये हमें, अपना वातावरण, संगत, इत्यादियों को अपने लक्ष्य के अनुकूल रख कर गलत विष्यों से अपने आप को बचाकर, अपने विवेक के साधन से, गलतियां सुधारते हुए अपने लक्ष्य की ओर बडकर जीवन को सार्थक बनाना चहिये ।